- प्रोफेसर पी. के. आर्य
वेद का ज्ञान निहित है संबंधों की नव आशा है, विश्व भाल पर नित्य दमकती अपनी हिंदी भाषा है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंदी भाषा रीढ़ की अस्थि है। स्वतंत्रता पूर्व और उसके पश्चात भारतीय संचार के क्षेत्र में हिंदी भाषा ने न सिर्फ समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रखा अपितु जनसामान्य में संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा के प्रसार में दीपस्तंभ भी सिद्ध हुई।
आज जनसंचार के प्रायः समस्त क्षेत्रों में हिंदी के वर्चस्व को देखा जा सकता है। मुद्रित माध्यम हो या इलेक्ट्रॉनिक सभी में हिंदी ने अपनी अनिवार्य आवश्यकता को प्रतिबिंबित किया है। सूचना संचार के वैश्विक पटल पर हिंदी परस्पर प्रेम और संबंधों को सींच रही है। दुनिया के अनेक देशों से संचालित वेब पोर्टल्स की हिंदी भाषा को एक विकल्प के रूप में चुनने की विवशता, इसकी अतिशय लोकप्रियता और वांछनीयता की ओर संकेत करती है।
हिंदी एक भाषा नहीं एक संस्कृति है, एक वैचारिक क्रांति है, जो सदियों से अपनी यात्रा के अनंत पड़ाव और मोड़ों से होती हुई, एक ऐसी गंगा में परिवर्तित हो गई है, जिसका भाव तन के मेल से मुक्ति देता है, तो उसके साहित्य का प्रभाव मन के मैल को धोने का काम करता है। इस हिंदी रूपी गंगा में अनेक दिशाओं से असंख्य धाराएं आकर मिलती रहीं और उसने उन सभी को सहजतापूर्वक स्वीकार भी किया। हिंदी के दामन में जो भी भाषा और बोली आकर गिरी, वह और उजली और निखरी बनकर उभरी।
आज के बदलते परिवेश में हिंदी अपने परंपरागत आवरण से बाहर निकलकर सकल विश्व को अचंभित और प्रभावित कर रही है। विगत दो दशकों में जिस तेजी से हिंदी का अंतरराष्ट्रीय विकास हुआ है और उसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। संभवतः ही कोई अन्य भाषा विश्व में हिंदी की तर्ज पर इस तरह से विस्तारित हुई हो?
प्रयोगिक संदर्भों में देखें तो 1952 में हिंदी विश्व पांचवें स्थान पर थी। 1980 के दशक में वह चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद तीसरे स्थान पर आ गई। आज उसकी लोकप्रियता लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है और वह चीनी भाषा के बाद दूसरे स्थान पर आ गई है। कल वह चीनी भाषा को पछाड़कर नंबर एक होने का गौरव अर्जित कर ले, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
निश्चित ही इसके लिए वे सभी संस्थाएं और समूह साधुवाद के पात्र हैं, जो हिंदी के विकास व प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय रूप से कार्यरत हैं। आज की वास्तविकता यह है कि बाजारवाद में उदित नह संभावनाओं ने हिंदी की स्वीकार्यता को अभूतपूर्व आयाम प्रदान किये हैं। यह सार्वभौमिक सत्य है कि भाषा यदि रोजगार और संवादपरक नहीं है, तो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगना अवश्यम्भावी है।
मैक्सिको की पुरातन भाषाओं में से एक अयापनेको, यूक्रेन की कैरेम, ओकलाहामा की विचिता, इंडोनेशिया की लैंगिलू भाषा आज अगर अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही है, तो उसके लिए उनका रोजगारपरक और संवादविहीन होना मुख्य कारण है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार संपूर्ण विश्व में कुल भाषाओं की संख्या 6809 है। इन भाषाओं में से 90 प्रतिशत भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक लाख से भी कम है।
इनमें से तकरीबन 2500 मातृभाषाएं अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं। इनमें से कई को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं के रूप में सूचीबद्ध किया जा रहा है। लगभग डेढ़-दो सौ भाषाएं ऐसी भी हैं, जिन्हें 10 लाख से अधिक लोग बोलते हैं। जबकि 357 भाषाएं ऐसी है जिनको मात्र 50 व्यक्ति ही प्रयोग में लाते हैं।
इतना ही नहीं 46 भाषाएं ऐसी भी हैं जिन्हें मात्र एक-एक आदमी बोलता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराये गए एक अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि मातृभाषाओं के रूप में विलुप्तिकरण की कगार पर जो भाषाएं वर्ष 2001 में लगभग 900 की संख्या में थीं, उन भाषाओं की संख्या सन 2012 तक आते-आते लगभग 2950 पहुंच गई है।
हिंदी फिल्मों के संवाद तथा गानों और मुख्य धारा के हिंदी मीडिया ने इस भाषा को करोड़ों-करोड़ लोगों की वाणी बना दिया है। देश की एक बड़ी आबादी आज अपने मनपसंद समाचार विचार, खेत, सिनेमा और राजनीति की समस्त सूचनाएं इसी भाषा माध्यम से प्राप्त करती है दुनिया की हर बड़ी मीडिया कंपनी, बैंकिंग प्रतिष्ठान, साफ्टवेयर कंपनियां तथा सोशल नेटवर्किंग साईट्स हिंदी को लेकर नित नए प्रयोगों में जुटी हैं। हिंदी समाचारों और कार्यक्रमों के चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। डिस्कवरी और एनजीसी समेत प्रायः सभी बड़े चैनल अपने लोकप्रिय और व्यापक टीआरपी कार्यक्रमों का निर्माण हिंदी भाषा में कर रहे हैं।
जर्मन के लोग हिंदी को एशियाई आबादी के एक बड़े वर्ग से संपर्क साधने का सबसे सशक्त माध्यम मानने लगे हैं। जर्मनी के हाइडेलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हंबोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय के अलावा दुनिया के कई शिक्षण संस्थाओं में अब हिंदी भाषा पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई है।
छात्र समुदाय इस भाषा में रोजगार की व्यापक संभावनाएं भी तलाशने लगा है। एक आंकड़े के दुनिया भर के 150 विश्वविद्यालके आंकड़े के मुताबिक शिक्षण संस्थाओं में रिसर्च स्तर तक अध्ययन अध्यापन की पूरी व्यवस्था की गई है। यूरोप से ही तकरीबन दो दुर्जन पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित होती हैं। सुखद यह है कि पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज विश्व में आधा अरब लोग हिंदी बोलते हैं और तकरीबन एक अरब लोग हिंदी बखूबी समझते हैं। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां हिंदी अपने पांव पसारती न दिख रही हो। वैश्वीकरण के माहौल में अब हिंदी विदेशी कंपनियों के लिए भी लाभ की एक आकर्षक भाषा व माध्यम बनती जा रही है।
भारतीय लोकतंत्र के संचार प्रासाद की नींव का प्रथम पत्थर ‘हिंदी’ है। आज कोई भी बड़ा आंदोलन हो अथवा जन अभियान, जब हिंदी के कंधों पर सवार नहीं होता, उसे अपने प्रशस्ति मंदिरों के स्वर्ण कंगूरे दृष्टिगोचर नहीं हो पाते। राष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले समाचार पत्र हिंदी भाषा में ही प्रकाशित हो रहे हैं।
सर्वाधिक लोकप्रिय टेलीविजन कार्यक्रमों का निर्माण भी हिंदी में ही किया जा रहा है। अधीनस्थों को डांटने के लिए भले ही अंग्रेजी का इस्तेमाल होता हो परन्तु हृदय और मस्तिष्क की संजीवनी मात्र हिंदी ही है। लगता है राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी के वे उद्गार सत्य होने के निकट हैं जब उन्होंने कहा था कि हिंदी उन सभी गुणों से अलंकृत है, जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में आसीन हो सकती है।