
नई दिल्ली l क्या हम ब्रांडेड दवाओं के नाम पर महंगी और कम असरदार दवाएं ले रहे हैं? क्या जेनेरिक दवाओं को जानबूझकर कमतर दिखाया जा रहा है? यह बहस उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी हरित क्रांति के दौर में किसानों के साथ हुई नीतियों पर चर्चा।
हरित क्रांति: किसानों को भटकाने की साजिश?
60 के दशक में देश में हरित क्रांति लाई गई। किसानों को गोबर की खाद छोड़कर यूरिया और कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया गया। नतीजा यह हुआ कि पैदावार तो बढ़ी, लेकिन खाद्य पदार्थ जहरीले हो गए। अब वही बड़े उद्योगपति ऑर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर गोबर की खाद और गोमूत्र से कीटनाशक बनाकर महंगे दामों पर फसल बेच रहे हैं।
किसान पहले 30 रुपये किलो गेहूं उगाता था, लेकिन अब तीन गुना पैदावार के बावजूद वह घाटे में है। दूसरी ओर, ऑर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर वही गेहूं 150 रुपये किलो बिक रहा है। सवाल यह है कि फायदा किसान को हुआ या फार्म हाउस के मालिकों को?
इसी तरह, यूरिया और पेस्टीसाइड युक्त चारा खाने वाली गाय-भैंस का दूध 50 रुपये लीटर में मिल रहा है, जबकि ऑर्गेनिक चारा खाने वाले जानवरों का दूध 150-200 रुपये लीटर बिक रहा है। किसान अपने ही मूल काम से भटक गया, जबकि अमीर तबका उसी काम से करोड़ों कमा रहा है।
गंगा का जल कभी अमृत समान था, लेकिन फैक्ट्रियों का कचरा बहाकर इसे जहरीला बना दिया गया। अब वही पानी अल्कलाइन वॉटर के नाम से सैकड़ों रुपये लीटर में बेचा जा रहा है, जबकि इसकी pH वैल्यू गंगाजल जैसी ही है।
अब सवाल यह है कि क्या यही खेल दवाओं के साथ भी खेला जा रहा है? मेडिकल इंडस्ट्री का एक बड़ा तबका दावा करता है कि जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड की तुलना में कम असरदार होती हैं। लेकिन क्या हर ब्रांडेड दवा जेनेरिक से बेहतर होती है?
देश में स्थिति यह है कि हर दूसरा डॉक्टर अपनी खुद की दवा कंपनी रजिस्टर्ड करवा रहा है। वे हिमाचल, हैदराबाद जैसी जगहों से अपनी कंपनी की दवा बनवाते हैं और मनचाही एमआरपी तय करवाते हैं। फिर अपने क्लीनिक में उन्हीं दवाओं को मरीजों को लिखकर खरीदने पर मजबूर करते हैं।
सरकारी अस्पतालों में भी डॉक्टर ब्रांड का नाम ही लिखते हैं, सॉल्ट नेम नहीं। मेडिकल स्टोर्स से इन डॉक्टरों को कमीशन मिलता है। सवाल उठता है कि इस धांधली को रोकेगा कौन?
2008 में प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (PMBJP) शुरू की गई थी, ताकि सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाएं आम लोगों को मिल सकें। सरकार दावा करती है कि देशभर में 15,000 से ज्यादा जनऔषधि केंद्र खोले गए हैं।
लेकिन क्या ये केंद्र वास्तव में अपना मकसद पूरा कर रहे हैं? जेपी अस्पताल में खुले जनऔषधि केंद्र की हालत देखिए—यहां तो दवाएं होने से ही इनकार किया जा रहा है! ऐसी स्थिति अन्य केंद्रों पर भी होगी। इसकी निगरानी कौन करेगा?
समाधान क्या है?
जनऔषधि केंद्रों का मकसद तभी पूरा होगा, जब:
✅ सरकार यहां 2000 से अधिक जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करे।
✅ डॉक्टर ब्रांड का नाम नहीं, सॉल्ट नेम लिखें।
✅ कमीशनखोरी पर सख्त कार्रवाई हो।
✅ घटिया ब्रांडेड दवाओं पर छापे मारे जाएं।
✅ आम जनता अपने अधिकारों को समझे।