पितृपक्ष में कितने प्रकार किया जाता है श्राद्ध, जानें इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व

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  • आचार्य विनीत कौशिक

पितृ पक्ष में पितरों के लिए किये जाने वाले श्राद्ध का बहुत धार्मिक महत्व होता है. वायु पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितरगण सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं.

श्राद्ध का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व

पूर्वजों की आत्माओं की संतुष्टि के लिए श्रद्धा भाव से विधि-विधान के साथ किये गये यज्ञ को श्राद्ध कहते हैं. श्राद्ध की व्यवस्था वैदिक काल से चली आ रही है. शास्त्रों में इसे श्राद्ध यज्ञ कहा गया है. श्राद्ध का उद्देश्य अपने पितरों के प्रति सम्मान करना है क्योंकि यह मनुष्य योनि अर्थात् हमारा शरीर पितरों की आत्माओं की कृपा के कारण हमें मिला है. ऐसे में पूर्वजों के ऋणों से मुक्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है. श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाय वह श्राद्ध है.


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श्राद्ध के प्रकार

मत्सय पुराण के अनुसार श्राद्ध के तीन प्रकार बताए गये हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य. इनमें से नित्य श्राद्ध वे हैं जो अघ्र्य तथा आवाहन के बिना ही किसी निश्चित अवसर पर किये जाते हैं. जैसे अमावस्या के दिन या फिर अष्टका के दिन का श्राद्ध. देवताओं के लिए किया जाने वाला श्राद्ध नैमित्तिक श्राद्ध कहलाता है. यह श्राद्ध किसी ऐसे अवसर पर किया जाता है जो अनिश्चित होता है. जैसे कि यह श्राद्ध पुत्र जन्म आदि के समय किया जाता है. किसी विशेष फल के लिए जो श्राद्ध किये जाते हैं वे काम्य श्राद्ध कहलाते हैं. लोग इसे स्वर्ग, मोक्ष, संतति आदि की कामना से प्रत्येक वर्ष करते हैं.

श्राद्ध का धार्मिक महत्व

मनुष्य शरीर में स्थित आत्माओं का परस्पर शाश्वत संबंध है. इसका कारण यह है कि आत्मा परमात्मा का अंश है और आत्मा स्वरूपी भौतिक शरीरधारी मनुष्य अपने पूर्वजों आदि की आत्माओं की संतुष्टि के लिए पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है. शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में पितरों के नाम और गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न उनके श्राद्ध की गूढ़ बाते ,किसकी श्राद्ध कब करे

श्राद्ध क्यों कैसे करे? पितृ दोष ,राहू ,सर्प दोष शांति ?तर्पण? विधि

१. मृत्यु के प्रथम वर्ष श्राद्ध नहीं करे । 

२. पूर्वान्ह में शुक्ल्पक्ष में रात्री में और अपने जन्मदिन में श्राद्ध नहीं करना चाहिए । 

३. कुर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति अग्नि विष आदि के द्वारा आत्महत्या करता है उसके निमित्त श्राद्ध नहीं तर्पण का विधान नहीं है ।

४. चतुदर्शी तिथि की श्राद्ध नहीं करना चाहिए, इस तिथि को मृत्यु प्राप्त पितरों का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या को करने का विधान है ।

५. जिनके पितृ युद्ध में शस्त्र से मारे गए हों उनका श्राद्ध चतुर्दशी को करने से वे प्रसन्न होते हैं और परिवारजनों पर आशीर्वाद बनाए रखते हैं ।

          श्राद्ध कब, क्या और कैसे करे जानने योग्य बाते

          किस तिथि की श्राद्ध नहीं – 

१. जिस तिथी को जिसकी मृत्यु हुई है, उस तिथि को ही श्राद्ध किया जाना चाहिए । पिता जीवित हो तो, गया श्राद्ध न करें ।

२. मां की मृत्यु (सौभाग्यवती स्त्री) किसी भी तिथि को हुईं हो, श्राद्ध केवल नवमी को ही करना है ।

३. श्राद्ध चतुर्दशी को नहीं करना चाहिए ।इस दिन जिनकी तिथि ज्ञात नहीं हो, उनका श्राद्ध विधान है ।

४. श्राद्ध का समय दोपहर 1 2 बजे से सायं 5 बजे का होता हैं । 

              जनेऊ,चन्दन जल विधि
पितर पूजा / कार्य करते समय क्या विशेष सावधानी रखना चाहिए ?
     पितरों की पूजा के समय उपनयन या जनेऊ अपशब्द या बाएं से दाहिने करना चाहिए वामावर्त या विपरीत क्रम से गंध जल धूप आगे उनको प्रदान करना चाहिए|

पितरों को चंदन तर्जनी से ही लगाना चाहिए अनामिका उंगली का प्रयोग केवल देवताओं के लिए प्रयोग किया  जाता है|

वर्ष में  कितने अवसर श्राद्ध के होते हैं?

वर्ष में श्राद्ध के 96 अवसर होते हैं जैसे 12 अमावस्या चार युग तिथि 14 मनुवादी तिथि 12 संक्रांति 12 विद्युत योग 12 व्यतिपात योग 15 महालय श्राद्ध  का तथा पांच पर्व वेद्य|

श्राद्ध कार्य में प्रयोग होने वाले कुछ कूट शब्द एवं उनके अर्थ क्या है|

जनसामान्य संस्कृत भाषा से बहुत अधिक परिचित नहीं होने के कारण श्राद्ध में प्रयोग होने वाले शब्दों के अर्थ नहीं समझ पाता है| जैसे उदक अर्थात   अर्घदान पूजा के लिए जल प्रदान करना, अमन्न= अर्थात कच्चा अन्य, आलोड़न= जल को घुमाना, एक्को दृष्टि= पिता एक व्यक्ति के लिए किए जाने वाले श्राद्ध |

जो विश्वेदेव रहित पूजा की जाती है एक कुदृष्टि कहलाता है|

 कव्य= पितरों के लिए प्रदान किए जाने वाला द्रव्य वस्तु, तर्पण= पितर देवता ऋषि इनको जल प्रदान करना तर्पण क्रिया कहलाती है| दोहित्र=पुत्री का पुत्र गेंडे के सिंग से बना हुआ पात्र एवं कपिला गाय का घी यह तीनों श्राद्धकर्म में विशेष महत्व रखते हैं तथा इनको दोहित्र की संज्ञा या नाम दिया गया है|

नारायण बलि= दुर्गति से बचने के लिए किया जाने वाला प्रायश्चित स्वरूप अनुष्ठान  कोविधि संगत पूजा पाठ|

  पवित्री= कृष्ण उसके द्वारा बनाई गई अंगूठी जो अनामिका उंगली में पहनी जाती है| महालय= भाद्र शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक की अवधि| मार्जन= जल का छोटा देकर किसी चीज को पवित्र करना|  सपिंड= स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक के पुरुष, सोदक= 8 पीढ़ी से लेकर 14 पीढ़ी तक के पुरुष,

सगोत्र= 15 पीढ़ी से 21 वीं पीढ़ी तक के पूर्व पुरुष| सव्य= जनेऊ को बाएं कंधे पर डालना दाने हाथ के नीचे करना है इसके विपरीत अपसव्य विधि कहलाती है अर्थात जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाए हाथ के नीचे करना| दूध, शहद, गंगाजल, केसर, गंध वस्त्र कुश प्रमुख है ।

 बच्चों का श्राद्ध?

१. दो या उससे कम आयु के बच्चे की वार्षिक तिथि और श्राद्ध नहीं किया जाता है ।

२. यदि मृतक दो सै छह वर्ष आयु का है तो भी उसका श्राद्ध नहीं किया जाता है । उसका केवल मृत्यु के १० दिन के अन्दर सोलह पिण्डो (मलिन षोडशी) का दान किथा जाता है ।

३. छह वर्ष से अधिक आयु में मृत्यु होने पर श्राद्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया की जाती है ।

४. कन्या की दो से दस वर्ष की अवथि में मृत्यु होने की स्थिति में उसका श्राद्ध नहीं करते है । केवल मलिन षोडशी तक की क्रिया की जाती है ।

५. अविवाहित कन्या की दस बर्ष से अधिक आयु में मृत्यु होने पर मलिन षोडशी, एकादशाह, सपिण्डन आदि की क्रियाएं की जाती हैं ।

६. विवाहित कन्या को मृत्यु होने पर माता पिता के घर में श्राद्ध आदि की क्रिया नहीं की जाती है । 

 श्राद्ध के भोज्य पदार्थ : 

गेंहूं, जो, उड़द, फल, चावल, शाक, आम, करोंदा, ईख, अंगूर, किशमिश, बिदारिकंद, शहद, लाजा, शक्कर, सत्तू, सिंघाड़ा, केसर, सुपाडी ।

अक्षत श्राद्ध स्थल /कहाँ करे :  गंगा, प्रयाग, अमरकंटक, उग्रद्ध ,बदरीनाथ ।

श्राद्ध के प्रकार :

१. शुभ या मंगल कर्म के प्रारंभ में -आभ्युदिक श्राद्ध । 

२.पर्व के दिन : पार्वण श्राद्ध । 

३. प्रतिदिन : नित्य श्राद्ध । ४. ग्रहण रिश्तेदार मृत्यु : नैमित्तिक -काम्य श्राद्ध ।

५. संक्रांति जन्मसमय : श्राद्ध अक्षय फल प्रद । ६. सभी नक्षत्र में काम्य श्राद्ध ।

दैवताओ से पूर्व पितरों कों तर्पण दें । गृहस्थों के प्रथम देवता पितर होते है । (१६ वां अध्याय)

   समय : 

तृतीय प्रहर, अभिजित मुहूर्त, रोहिनी नक्षत्र उदय काल में अक्षयफल दानकर्त्ता को मिलता है । जल अर्पण के लिए श्राद्ध  के लिए कुतुप   काल दिन में 11: 36 बजे से लेकर 12:24 तक होता है|

अपराहन काल 1:12 से 3: 36 मिनट तक होता है

मध्यान काल दिन में 10:45 से 1:12 तक लगभग होता है

 रोहिण काल दिन का नवा मुहूर्त 12:24 से 1:12 तक माना जाता है|

संगव काल दिन में 10:48 से पहले का समय|

माघ में शुक्ल दशमी (९ फरवरी)  घी, तिल मिश्रित जल से स्नान ।रविवार को पुष्प, इत्र, पुनवर्सु, नवग्रह औषधियों से मिश्रित जल से स्नान करे ।
                 प्रत्येक माह श्राद्ध करने का क्या फल

अष्टमी चर्तुदशी, अमावस्या/पूर्णिमा, संकांति को सुगंध, जल व तिल पितरों कों दे। 

              किस दिन श्राद्ध करने का क्या फल :

रविवार-आरोग्य, सोमवारसौभाग्य , मंगलवार विजय , बुघ मनोकामना , गुरूवार ज्ञान , शुक्रवार धन , शनवार आयु   |
माघ में शुक्ल दशमी (९ फरवरी)  घी, तिल मिश्रित जल से स्नान ।रविवार को पुष्प, इत्र, पुनवर्सु, नवग्रह औषधियों से मिश्रित जल से स्नान करे ।

              श्राद्ध में क्या नहीं करें /वर्जित –

१. सामाजिक या व्यापारिक संबंध स्थापित न करें । 

२. श्राद्ध के दिन दही नहीं बिलाएं ,चक्की नहीं चलाएं तथा बाल न कटवाऐ ।

                     श्राद्ध के दिन क्या नहीं खाएं  ?

१–बैंगन, गाजर, मसूर, अरहर, गोल लौकी, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिधाङा, जामुन, पिपली, सुपाड़ी, कुलपी, महुआ, असली पिली सरसों और चना का प्रयोग श्राद्ध में निषिद्ध है ।

२-हींग, लोकी, लहसुन, काला नमक, धनिया, अम्लवेतस, राजगिरा, सौंफ, कचनार, श्वेत चावल, बड़ा नीबू, बैगन, चोई साग, नारियल, जामुन, जीरा, चिरौंजी, लोहे के पात्र में बना

निमंत्रित : ब्राह्मणों को पिप्त मिश्रित जल देना चाहिए। इसके बाद पिंड अंश देवे।     निमंत्रित ब्राहम्णो से कहे (भोजन उपरांत) अभिलाषा कथन / याचना-“हे  ,  पितरगण हमारे दाताओ की अभिवृद्धि है। वेदज्ञान, संतान, श्रद्धा की संख्या बढे। हमसे सब याचना करे हमे याचना न करना पडे।आमंत्रित ब्राहम्ण तथास्तु कहकर आशीर्वाद दे। “श्राद्ध कर्म के पश्चात् – पिंड गाय, बकरी, ब्राहम्ण अग्नि जल पक्षि को दे।

 संतान की अभिलाषा – 
बीच वाले पिंड को। खाने से पूर्व याचना करे। हे पितरगण वंश वृद्धि करने वाली संतान का मुझमे गर्भाधान करे।

पितृकर्म की समाप्ति के पश्चात वेश्वदेव का पूजन करे।

इसके बाद पिंड अंश देवे।

तर्पण- विधि

दोनों हाध से करें तर्जनी व अंगूठे के मध्य कुश हो ।

दक्षिण दिशा की ओर मुंह हो हाथ मैं कुश, जौ, शहद, जल, काले तिल एवं अनामिका में स्वर्ण अंगूठी हो ।

दाई अनामिका मे दो कुश पवित्री, बाई अनामिका में तीन कुश पवित्री पहने ।

जल दोनों हाथ मिलाकर तर्जनी एवं अंगूठे के मध्य छेत्र से निचे की ओर छोड़ना चाहिए, तीन अंजलि छोड़े ।

हाथ जितना ऊपर (कम से कम ह्रदय तक) हो उतना ऊपर का जल, काले तिल छोड़े । संभव हो तो नाभि के बराबर पानी (जलाशय, नदी आदि में खड़े होकर) पितरो का ध्यान करते हुए जो तिल व पानी छोड़ना चहिए ।

जनेऊ दाहिने कन्धे पर बाएं हाथ के निचे हो ।सप्तमी को तिल वर्जित श्राद्ध के दिन जन्म दिन हो तो तिल वर्जित । मंत्र पढ़े तो और भी उत्तम है ।

ॐ उशन्त स्तवा नि धीमहयुशन्त:समिधीमही ।

उशन्नुशत आ वह पितृन हविषे अन्तवे ।

अथवा ॐ आगच्छन्तु में पित्तरंइमं गृहणन्तु जलांजालिम् ।

विशेष ध्यान रखने योग्य तथ्य

१. श्राद्ध की सम्पूर्ण क्रिया दक्षिण की ओर मुंह करके तथा अपव्यय (जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाएं हाथ के नीचे करलेने की स्थिति) होकर की जाती हैं ।

२. श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए ।  मिट्टी के बर्तनों के अलावा लकड़ी के बर्तन, पत्तों के दौनों (केले के पत्ते को छोड़कर) का भी प्रयोग कर सकते हैं । 

३. श्राद्ध में तुलसीजल का प्रयोग आवश्यक हैं । 

४. श्राद्ध बिना आसन के न करें । 

५. श्राद्ध में अग्नि पर घी, तिल के साथ डालें, निर्धनता की स्थिति में केवल शाक से श्राद्ध करें । यदि शाक न हो तो गाय को खिलाने से श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है । 

६. मृत्यु के समय जो तिथि होती है, उसे ही मरण तिथि माना जाता है । (मरण तिथि के निर्धारण में सूर्योदय कालीन तिथि ग्राह नहीं है ।) श्राद्ध मरण तिथि के दिन ही किया जाता है ।  पति के रहते मृत नारी के श्राद्ध में ब्राम्हण के साथ सौभाग्यवती ब्राम्हणी को पति के साथ भी भोजन कराना  |

श्राद्ध काल में जपनीय मंत्र.

१. ऊँ क्री क्ली ऐ सर्बपितृभयो स्वात्मा सिद्धये ऊँ फट । 

: । जिनकी जन्म पत्रिका में पितृदोष हो तो उन्हें पितृ पक्ष में नित्य ऊँ ऐं पितृदोष शमन हीं ऊँस्वधा ।। मंत्र जाप के पश्चात तिलांजलि से अर्घ्य दें व निर्धन को तिल दान अवश्य करे ।

सुख वैभव वृद्धि , पितृ दोष बाधा शमन मन्त्र –

ॐ श्रे सर्व पितृदोष निवारण क्लेश हन हन सुख शांति देहि फट् स्वाहा
पितृ दोष शमन और घर में सुख शांति क्या करे ?

दूध का बना प्रसाद का भोग लगाएं और नित्य मंत्रजप के बाद पश्चिम दिशा की तरफ वह फेंक दें । इस प्रकार ग्यारह दिन तक प्रयोग करें । इस प्रकार जब प्रयोग समाप्त हो जाए तब बारहवे दिन उस मिटटी के पात्र को विसर्जित कर नारियल पूजा के स्थान में रख दें । इस प्रकार करने से पितृ दोष शमन और घर में सुख शांति होती है ।

लिए अर्पित किया जाता है, वह उन्हें प्राप्त हो जाता है. यदि आपके पितरों को उनके कर्म के अनुसार देव योनि प्राप्त हुई है तो वह उन्हें अमृत रूप में प्राप्त होता है. यदि उन्हें गंधर्वलोक प्राप्त हुआ है तो उन्हें भोग्य रूप में और यदि उन्हें पशु योनि प्राप्त हुई है तो उन्हें तृण रूप में और यदि सर्प योनि प्राप्त हुई है तो वायु रूप में और यदि दानव योनि प्राप्ति हुई है तो मांस रूप में और यदि प्रेत योनि प्राप्ति हुई है तो रुधिर रूप में और यदि मनुष्य योनि प्राप्ति हुई है तो उन्हें अन्न रूप में प्राप्त होता है.

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